अपने परिवार के साथ मुलायम सिंह यादव. साथ में लालू यादव
Sarthak Duniya News
लखनऊ | फरवरी 01, 2022 10:10 PM IST
“उत्तर प्रदेश में आगरा के दक्षिण में दो छोटे शहर हैं, इटावा और मैनपुरी। दूर से ही धुआं उगलते ईंट-भट्ठों से इन्हें पहचाना जा सकता है। कुछ तथ्यों को छोड़ दें, तो यहां कुछ भी नहीं, जिससे इतिहास या भावी पीढ़ी सराहना करे। कांग्रेस की स्थापना करने वाले एलन ऑक्टेवियन ह्यूम लंबे समय तक इटावा में ब्रिटिश सरकार के ज़िला कलेक्टर थे। 1857 की क्रांति के दौरान भी वह यहीं रहे।”
मुलायम सिंह यादव का जन्म राजनीतिक परिवार में नहीं हुआ था। उनके पिता सुघर सिंह इटावा के सैफई में एक छोटे किसान थे। राम सिंह और अंशुमान यादव ने मुलायम की जो जीवनी लिखी है, उसमें उनकी मां मूर्ति देवी ने सैफई को ऐसे गांव के रूप में याद किया, जहां ऊसर ज़मीन पर झोपड़ियों की कतार थी। दशकों बाद अमेठी के लोगों ने, जो 2019 तक गांधी परिवार की मिल्कियत थे, सैफई की तुलना दुबई से की। उन लोगों ने मुलायम सिंह यादव जैसे सांसद की इच्छा जताई, जो उनके उपेक्षित शहर को चमका सके। जिम, स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स, स्कूल-कॉलेज और एक मेगा स्टेडियम, जिसमें सपा शासन के दौरान बॉलिवुड सितारों का जमावड़ा लगता था- इन सारी चीज़ों के साथ सैफई पूरी तरह आत्मनिर्भर है।
राजनीतिक कथा यह है कि मुलायम सिंह यादव दिग्गज समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया का अनुसरण करने वालों में थे। लोहिया ख़ुद जयप्रकाश नारायण के सहयोगी थे। उन्होंने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (PSP) की स्थापना की, जो आखिर में जाकर संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (SSP) बनी।
एक पूर्व सहयोगी ने बताया कि मुलायम केवल एक बार साल 1967 में लोहिया से मिले थे। मुलाकात हुई थी इटावा रेलवे स्टेशन पर। लोहिया एसएसपी के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ने कन्नौज जा रहे थे। उसी दौरान इटावा के सोशलिस्ट नेता कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया ने मुलायम को लोहिया से मिलवाया। लेकिन मुलायम अपने कॉलेज के दिनों से ही लोहिया के प्रति इतने दीवाने थे कि जब उनके हीरो ने 1962 में फर्रुखाबाद से उपचुनाव जीता, तो उन्होंने जीत का जश्न मनाने के लिए मिठाई बंटवाई थी।
मुलायम के असली गुरु थे नत्थू सिंह, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के नेता। उन्होंने मुलायम को पहली बार इटावा में एक कुश्ती प्रतियोगिता में देखा था। अपने स्कूल के दिनों से ही मुलायम कुश्ती लड़ा करते। अपने छोटे कद के बावजूद उन्होंने लंबे और मजबूत प्रतिद्वंद्वी को पछाड़ दिया। नत्थू सिंह और भी ज़्यादा तब प्रभावित हुए, जब उन्हें पता चला कि मुलायम पोस्ट ग्रैजुएट की पढ़ाई कर रहे हैं और उन्हें वाद-विवाद करना पसंद है। उन्होंने मुलायम को अपनी शरण में ले लिया। साल 1967 में नत्थू सिंह ने अपनी सीट जसवंत नगर छोड़ी और मुलायम को मैदान में उतारा। मुलायम ने जीत हासिल कर ली।
उत्तर प्रदेश में राम नरेश यादव के नेतृत्व वाली जनता पार्टी की सरकार में मुलायम सहकारिता मंत्री बने और तभी उन्होंने राजनीतिक ताकत हासिल की। उन्होंने कृषि और डेयरी फार्मिंग में ग्रामीण सहकारी समितियों की संख्या बढ़ाने के लिए अपनी स्थिति का लाभ उठाया। इटावा से निकलने वाले अख़बार दैनिक सवेरा के पूर्व संपादक श्री प्रबंध त्रिपाठी ने मुलायम के सफर को देखा है। वह कहते हैं, ‘उन्होंने मंत्रालय का इस्तेमाल सहकारी समितियों में यादवों को लाने में किया और सवर्ण जातियों का वर्चस्व तोड़ा। उन्होंने ख़ुद को एक यादव नेता के रूप में स्थापित किया।’
वैसे यह बात पूरी तरह सही नहीं। यूपी की समाजवादी पार्टियों- जनता दल, समाजवादी जनता पार्टी और आखिरकार समाजवादी पार्टी के ज़रिए मुलायम ने कई जाति के नेताओं को आगे बढ़ाया। इनमें भूमिहार नेता जनेश्वर मिश्र, ब्राह्मण चेहरे बृजभूषण तिवारी और राम शंकर कौशिक, राजपूत मोहन सिंह और गुर्जर रामशरण दास शामिल हैं। हालांकि पार्टी के संगठन को खड़ा करने और चलाने के लिए उन्होंने अपने छोटे भाई शिवपाल सिंह यादव जितना भरोसा किसी पर नहीं किया। शिवपाल की पत्नी सरला भी राजनीति से जुड़ी थीं। मुलायम जब सीएम थे, तब सरला को इटावा की प्रथम महिला कहा जाता। दरअसल, मुलायम की पत्नी मालती देवी लंबे समय से बीमार थीं और साल 2003 में उनका निधन हो गया। अखिलेश उनकी इकलौती संतान थे। मुलायम ने दूसरी शादी की साधना गुप्ता से, जिनसे उनके संबंध थे 1990 के दशक से। साधना से भी उनको एक बेटा है, प्रतीक।










